सर्वप्रथम न्यूज़ सौरभ कुमार : विगत 4 वर्षों में दिव्यांगों को आरक्षण प्राप्त है 4% और जितनी भी बिहार में वैकेंसी निकली उस में दिव्यांगों की नियुक्ति हुई महज 1% तो बिहार में 5100000 दिव्यांग है और 4% आरक्षण है और शिक्षण संस्थान और मेडिकल लाइन में 5% आरक्षण है लेकिन नियुक्ति 1% ही क्यों क्या हमारा आरक्षण 4% है 5% है की 1% है किसका जवाब दे सरकार और जहां पर 21 प्रकार के दिव्यांग है वहां पर 4% आरक्षण भी नहीं दी जा रही है तो क्या दिव्यांगों का कल्याण हो सकेगा इस गुरुवार, 4सितम्बर को बिहार सरकार के कर्मचारी चयन आयोग ने एक नोटिस जारी कर यह जानकारी दी कि उनके द्वारा आयोजित की जाने वाली एसएससी की मुख्य परीक्षा की सम्भावित तिथि 18 अक्टूबर है, इसलिए परीक्षार्थी उनके पोर्टल का नियमित अवलोकन करते रहे हैं. पहली नजर में यह नोटिस गैरजरूरी लगती है, क्योंकि जब मुख्य परीक्षा की तिथि घोषित नहीं हुई तो इस नोटिस का क्या अर्थ है? मगर अभ्यर्थी इसका अर्थ समझ रहे हैं, वे दो तीन दिनों से सरकारी नौकरियों की गड़बड़ी के खिलाफ बड़े आन्दोलन की तैयारी कर रहे हैं. सम्भवतः इसी आन्दोलन की वजह से यह नोटिस जारी किया गया है. सरकार नहीं चाहती है कि इस चुनावी साल में ऐसे किसी मुद्दे को लेकर बेवजह का बखेड़ा खड़ा हो.
इस इंटरस्तरीय एसएससी वाली भर्ती की कथा अनोखी है. इसका आवेदन पहली दफा 2014 में निकाला गया था. यह भर्ती कुल 13120 पदों के लिए निकाली गई थी. मगर इसकी प्रारंभिक परीक्षा दिसंबर, 2018 में चार साल बाद हुई. रिजल्ट इस साल की शुरुआत में निकला और अब मुख्य परीक्षा अक्टूबर 2020 में प्रस्तावित है. न जाने इसकी बहाली कब होगी. छह साल का समय तो बीत ही चुकी हैं. कुछ लोग इस बहाली को चुनावी बहाली का नाम देते हैं. 2015 के विधानसभा चुनाव में युवाओं को खुश करने के लिए यह बहाली निकली. 2019 के लोकसभा चुनाव के पहले इसी प्रारंभिक परीक्षा हुई अब 2020 के विधानसभा चुनाव के वक़्त इसी मुख्य परीक्षा होगी. इस तरह एक सरकारी भर्ती ने युवाओं को तीन चुनाव तक भ्रमित किया.
क्या है इसका मतलब
बिहार में यह एक इकलौती घटना नहीं है. अखबार में स्वास्थ्य मन्त्री ने अपने विभाग में बम्पर भर्ती की घोषणा की है. 12 हजार से अधिक पदों पर डॉक्टर, नर्स और स्वास्थ्य कर्मियों की नियुक्ति होगी. दुखद जानकारी है कि इस वक़्त बिहार के स्वास्थ्य विभाग में कुल स्वीकृत पदों के मुकाबले तीन चौथाई पद खाली हैं. यह स्थिति लम्बे समय से है. मगर सरकार को इनके बहाली की याद ऐन चुनाव के वक़्त आ रही है. इसमें भी सभी रिक्त पदों पर बहाली की घोषणा नहीं हुई है. जैसा कि हमने एसएससी के मामले में देखा है, बहाली निकलने का मतलब यह बिल्कुल नहीं कि लोगों को नौकरी मिल जाएगी. यह मामला सालों तक अटका रह सकता है.
नौकरियों के मामले में जो हाल बिहार के स्वास्थ्य विभाग का है, उससे बुरा हाल शिक्षा विभाग और पुलिस विभाग का है. ऐसी जानकारी है कि बिहार के प्राइमरी और सेकेंडरी स्कूलों को मिलाकर स्थायी शिक्षकों के दो लाख से अधिक पद रिक्त हैं. मगर बिहार सरकार की तैयारी इन पदों पर अस्थायी शिक्षकों को नियुक्त करने की है. पहले ही बिहार में स्थायी शिक्षकों और नियोजित शिक्षकों का अनुपात काफी असंतुलित है. राज्य में कार्यरत साढ़े चार लाख के अधिक शिक्षकों में से 90 फीसदी नियोजित शिक्षक हैं. राज्य में एक बार फिर से स्टेट टीईटी की परीक्षा ली जा रही है. इनमें नौ हजार से अधिक नियोजन इकाइयां हैं. एक अभ्यर्थी कम से कम सौ-सौ आवेदन करता है और इसके पीछे ढेर सारे पैसे खर्च करता है. जब इन्हीं शिक्षकों की मदद से पूरे बिहार की शिक्षा व्यवस्था को चलना है, तो फिर स्थायी और अस्थायी का झमेला क्यों? पंचायतों के बदले शिक्षा विभाग को ही सरकार नियोजन इकाई क्यों नहीं बनाती?
खाली पदों का क्या होगा?
इसी तरह बताया जा रहा है कि राज्य में पुलिसकर्मियों के 50 हजार से अधिक पद रिक्त हैं. यह तब है जब बिहार में पुलिस पब्लिक का अनुपात न्यूनतम स्तर पर पहुंचा हुआ है, यहां प्रति एक लाख की आबादी पर सिर्फ 77 पुलिस कर्मी हैं, जबकि मणिपुर जैसे राज्य में पुलिसकर्मियों की संख्या प्रति एक लाख की आबादी पर एक हजार से अधिक है. यहां पुलिसकर्मियों का टोटल स्ट्रैंथ की 1.26 लाख है, अभी सिर्फ 77 हजार पुलिस कर्मियों के भरोसे इतना बड़ा और अपराध की दृष्टि से गंभीर माना जाने वाल राज्य चल रहा है. इसके बावजूद पुलिसकर्मियों की नियुक्ति में आनाकानी चलती रहती है. जूनियर इंजीनियरों के भी 66 फीसदी पद खाली बताए जा रहे हैं. मगर नियुक्ति नहीं हो रही, क्योंकि किसी न किसी तरीके से काम चल ही रहा है. कुल मिलाकर देखा जाए तो बिहार में सरकारी नौकरियों के तीन से साढ़े तीन लाख पद रिक्त हैं. मगर सरकार इन पदों पर लोगों को बहाल करने में जरा भी उत्सुक नजर नहीं आ रही, सिर्फ स्वास्थ्य विभाग के क्योंकि डॉक्टर और नर्सों की कमी की वजह से वह लगातार फजीहत झेलती रही है. सुप्रीम कोर्ट से लेकर पटना हाईकोर्ट तक के कई चेतावनी मिल चुकी है.
ऐसे में सवाल यह उठता है कि जिस राज्य की बेरोजगारी दर 46 फीसदी तक पहुंच गई है, उस राज्य में रोजगार को लेकर कोई मांग क्यों नहीं? कभी युवा सरकारी भर्तियों को लेकर उस तरह एकजुट नहीं होते हैं कि सरकार पर दबाव बने. वह इस संबंध में कोई बड़ा फैसला ले सके. जहां तक विपक्षी दलों का सवाल है, वह तो इन मुद्दे पर कभी सक्रिय होती नजर ही नहीं आती. राज्य में बेरोजगारी की स्थिति का अंदाजा इसी बात से लग सकता है कि पिछले साल जब प्लस टू स्कूलों में अतिथि शिक्षकों के लिए सरकार ने आवेदन मांगे तो बड़ी संख्या में बीटेक ग्रेजुएट ने इसके लिए आवेदन किया.
नौकरी की तलाश में युवा
दिलचस्प बात तो यह है कि नीतीश कुमार ने पिछला विधानसभा चुनाव जिस सात निश्चित के नाम पर जीता था, उसमें एक महत्वपूर्ण योजना राज्य के बेरोजगार के युवाओं के लिए है. इसके तहत 20-25 साल के ऐसे युवा जो पढ़ाई पूरी करके नौकरी की तलाश कर रहे हैं, उन्हें दो साल तक प्रति माह एक हजार रुपये स्वयं सहायता भत्ता के रूप में दिया जाना है. ऐसी जानकारी है कि 2016-17 में शुरू हुए इस योजना से अब तक बमुश्किल तीन से चार लाख युवाओं को यह भत्ता मिला है. मगर सरकार चाहती तो इन इतने ही युवाओं को सरकारी नौकरी भी दे सकते थे, क्योंकि लगभग इतने पद तो बिहार सरकार में ही खाली हैं. मगर सरकार युवाओं को नौकरी देने में बहुत उत्सुक नजर नहीं आती. ऐसे में सारा दारोमदार राज्य के युवाओं पर ही है, जो सरकार पर भत्ता लेने के बदले नौकरियां देने का दबाव बनाए