सर्वप्रथम न्यूज़ सौरभ कुमार : वैसे तो बड़े स्टेशनों पर जहाँ 6-8 से ज्यादा प्लेटफॉर्म होते हैं वहाँ एक शैड्यूल बनाकर रखा जाता है कि किस गाड़ी को कौन से प्लेटफॉर्म पर लेना है।
परंतु जब ट्रेनों के लेट होने से शैड्यूल या प्रोग्राम गड़बड़ा जाता है तब एन मौके पर प्लेटफॉर्म बदलना पड़ जाता है। इससे उन यात्रियों को काफी परेशानी हो जाती है जिनके पास सामान ज्यादा होता है महिलाएं, बच्चे और बुजुर्ग होते हैं।
प्लेटफॉर्म बदलने की दूसरी वजह होती है उस प्लेटफॉर्म लाइन का सिगनल फेल हो जाना। ऐसे में दो ही रास्ते बचते हैं कि या तो ट्रेन को पाइंट्स मैन के द्वारा पेपर आथोरिटी भेजना ट्रेन को पायलट करके लाने के लिए या फिर कोई दूसरे खाली प्लेटफॉर्म पर ले लेना। दूसरा तरीक ही प्रीफर किया जाता है। ऐसे में एनाउंसमेंट किया जाता है, खेद जताया जाता है। लेकिन यात्रियों को तो ब्रिज से जाना पड़ता है, कुली उल्टे सीधे पैसे माँगते हैं। इस प्रकार यात्रियों को तो जो परेशानी होनी थी वो तो हो ही गई। एक तो आजकल 24-24 डिब्बों की लम्बी गाड़ी होती हैं तो अपना डिब्बा ढूँढना मुश्किल काम होता है।