दिव्यांग भारतीय रेलवे में यात्री टिकट आरक्षण प्रणाली कब शुरु हुई थी?

सर्वप्रथम न्यूज़ सौरभ कुमार :  दिव्यांग भारतीय रेलवे में स्लीपर क्लास 1956 के लगभग इंट्रोड्यूस किया गया था। इसके पहले भारतीय रेलवे में केवल निम्नलिखित श्रेणी होती थीं:

प्रथमश्रेणी

  • द्वितीय श्रेणी
  • तृतीय श्रेणी

    द्वितीय और तृतीय श्रेणी में केवल बैठने की जगह होती थी और उसका कोई आरक्षण नहीं होता था।

    प्रथम श्रेणी के यात्री बहुत कम होते थे। उनके लिए फर्स्ट क्लास बुकिंग विंडो अलग होती थी। टिकिट लेने के बाद उन यात्रियों को 99% केस में जगह मिल ही जाती थी। यदि नहीं मिली तो वह टिकिट का रिफंड ले लेते थे। (इस पैरा में मेरे अंदाज (assumption) हैं।

    जब 1956 में स्लीपर क्लास के कोच बने तो ये दो तरह के थे :

    • तृतीय श्रेणी शयनयान 2 टायर
    • तृतीय श्रेणी शयनयान 3 टायर

    उस समय इन शयनयानों में टिकिट तृतीय श्रेणी का ही लगता था रिजर्वेशन फीस अलग से ली जाती थी।

    2 टायर शयनयान में ऊपर की बर्थ सोने के लिए रिजर्व होती थी और नीचे की सीटों का बैठने के लिए सीट का रिजर्वेशन होता था।

    3 टायर शयनयान आज ही की तरह होता था लेकिन उसमें आज की तरह बर्थ कुशन्ड नहीं होती थी। सीधे लकड़ी या प्लाईवुड के तख्तों की बर्थ होती थी। बिस्तर अपना बिछाना पड़ता था। खैर, वो तो आज भी अपना ही बिछाना पड़ता है। उस समय एक 3 टायर में 75 बर्थ होती थीं और सभी का रिजर्वेशन होता था। अन्तिम 3 बर्थ यानि 73,74,75 दरवाजे के पास होती थीं इसलिए उनमें यात्रियों के चढ़ते उतरते समय बहुत डिस्टर्वेंश होता था और सामान की चोरी भी हो जाती थी। इस बात की काफी शिकायतें हुयी तब ये 3 बर्थ समाप्त कर दी गयीं।

    इस प्रकार यह निष्कर्ष निकला कि रेलवे में रिजर्वेशन 1956 से आया। 1985-86 तक यह मैनुअली होता था। उसके बाद कम्प्यूटराइज्ड रिजर्वेशन शुरु हुआ। 1985 में सबसे पहले नई दिल्ली में कम्प्यूटराइज्ड रिजर्वेशन शुरु हुआ। उसके बाद निम्नलिखित PRS (Public Reservation System) एक के बाद एक आए:

    • PRS नई दिल्ली – 1985
    • PRS मुम्बई – जून 1987
    • PRS कोलकाता – जुलाई 1987
    • PRS चेन्नई – अक्टूबर 1987
    • PRS सिकन्दराबाद – जून 1989

    फिर इन पाँचों सिस्टम को नेटवर्किंग से जोड़ा गया और फिर ये सम्भव हुआ कि हम भारतीय रेलवे में कहीं से भी कहीं का रिजर्वड टिकिट ले सकते हैं।

    1985 के बाद का ‘रिजर्वेशन का इतिहास’ तो CRIS (Centre for Railway Information System)  की साइट पर जाकर कोई भी जान सकता है, लिख सकता है। लेकिन उसके पहले का इतिहास वही जानता है जिसने उसे देखा है, जिया है (कम से कम 1950 के पहले जन्म लिए हुए भारतीय नागरिक)। मैं 1955 की पैदाइश हूँ लेकिन मेरे पिताजी 1929 में जन्मे थे। वह अगस्त 1948 में झाँसी के मैकेनिकल कैरिज एवं वैगन वर्कशॉप में रेलवे सर्विस में आ गये थे तो 1960 के बाद जब मैं 5 वर्ष का हो गया तो मैंने उनसे पूछ-पूछ कर उसके पहले का रेलवे का इतिहास जाना।

    हालाँकि इसका लिखित इतिहास रेलवे बोर्ड की फाइलों में होगा, जिसे आप RTI से ही जान सकते हैं, वह आपको किसी गूगुल या नेट पर नहीं मिलेगा।

    कुछ लोगों की जिज्ञासा होगी की पहले रिजर्वेशन मैनुअली कैसे होता था। तो उस समय (1960-70) एक रेलवे रूट पर 8-10 मेल एक्सप्रेस से ज्यादा नहीं होती थीं। एक रिजर्वेशन काउंटर पर 2 गाड़ियों का रिजर्वेशन होता था। रिजर्वेशन क्लर्क के पास प्रत्येक ट्रेन के कोच वाइज (S1, S2, S3…… ) रजिस्टर होते थे। S1 के लिए अलग-अलग तारीख में वो अलग-अलग पन्ना खोलता था। ऐसे ही S2, S3….. आदि डिब्बों के लिए करता था। उसी रजिस्टर में हर यात्री की रिजर्वेसन स्लिप से एन्ट्री होती थी। इस तरह से 5-6 रिजर्वेसन काउंटर होते थे। दिल्ली, मुम्बई जैसे बड़े स्टेशनों पर गाड़ियाँ ज्यादा होने से ज्यादा काउंटर होते थे। रिजर्वेशन चार्ट टाइपराइटर पर बनते थे। रिजर्वेशन 30 दिन एडवांस तारीख का ही होता था।

    आप अंदाजा लगा सकते हैं कि उस समय लाइन में लगकर रिजर्वेशन लेना कितना मुश्किल काम था। फिर काउंटर पर जाकर पता चले कि चाही गई तारीख में टिकिट नहीं है तो कितनी मायूसी होती थी? यह मेरे जैसे भुक्तभोगी ही जान सकते हैं। आज रिजर्वड टिकिट लेना एक मोबाइल के कुछ टच बटन दबाने की प्रक्रिया है। सब टेक्नोलॉजी का खेल है।

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