दिव्यांग व्यक्तियों की आर्थिक की स्थिति सुधारना सबसे जरूरी

सर्वप्रथम न्यूज़ सौरभ कुमार : आर्थिक स्थिति को भी सुधारना सबसे जरूरी आमतौर पर व्यक्ति की आय, उसकी क्रय क्षमता यह बताती है कि व्यक्ति की आर्थिक स्थिति कैसी है। लेकिन जब किसी दिव्यांग व्यक्ति की बात आती है, तो अक्सर हम इस पैमाने को दरकिनार कर देते हैं। दिव्यांग को दयनीय। मान लिया जाता है, इसलिए न तो उसकी आर्थिक स्थिति की कोई चिंता की जाती है और न ही उस पर कोई चिंतन। क्योंकि उसे दयनीय माना जाता है, इसलिए दिव्यांगों के कल्याण के लिए तैयार किए जाने वाले ज्यादातर कार्यक्रमों और योजनाओं में कृपा का भाव होता है। दरअसल इसी सोच को बदलने की जरूरत है। अगर हम यह मानकर चलें कि दिव्यांग भी समाज की उपयोगी उत्पादक इकाई हैं, तो शायद हम उनकी आर्थिक स्थिति के बारे में सोचेंगे। तब योजनाएं ऐसी बनेंगी, जो उन्हें अपने पैरों पर तो खड़ा करेंगी ही, उनकी आर्थिक स्थिति को भी सुधारेंगी। दिव्यांगों को समाज में सही सम्मानजनक स्थान दिलाने के लिए उनकी आर्थिक स्थिति को सुधारना सबसे जरूरी है। यही स्थायी हल।भी है। यहां मामला केवल दिव्यांगों के लिए रोजगार या रोजगार के अवसर उपलब्ध कराने भर का ही नहीं है। मामला उन्हें सक्षम बनाने का है। शिक्षा के अधिकार की बात इन दिनों बहुत हो रही है, लेकिन आमतौर पर प्राथमिक पाठशालाओं में दिव्यांगों को प्रवेश नहीं मिल पाता है। कहीं यह कह दिया जाता है कि इन्हें पढ़ने की क्या जरूरत, या यह पढ़कर भी क्या करेंगे, तो कहीं यह कहा जाता है कि स्कूल के पास दिव्यांग बच्चों को पढ़ाने के लिए सुविधाएं नहीं  हैं। यदि किसी तरह से कुछ बच्चे स्कूल स्तर से पढाई करके आगे बढ़ भी जाते हैं, तो उच्च संस्थान उनके स्वागत के लिए तैयार नहीं दिखते। जो इन बाधाओं को भी पार कर जाते हैं, उनके लिए आगे और बाधाएं खड़ी होती हैं। यह तो हुई मुख्यधारा की पढ़ाई की बात । इसके अलावा दिव्यांगों में तरह-तरह की कुशलता के विकास यानी स्किल डेवलपमेंट के लिए भी कुछ नहीं किया जा रहा। जो योजनाएं हैं, वे भी कागज से बहुत आगे नहीं जाती। दिव्यांगों के लिए नौकरियों में मामूलीसा ही आरक्षण है, लेकिन आमतौर पर आरक्षित पद खाली पड़े रहते हैं, उनकी जगह सक्षम लोगों की तदर्थ नियुक्ति से काम चलाया जाता है। जो किसी तरह नौकरी में भी पहुंच जाते हैं, उनकी पदोन्नति आदि के लिए बाधाएं तो हैं ही। दिव्यांगों में भी जो पुरुष हैं, उनके लिए तो फिर भी कुछ अवसर मौजूद हैं, अधिकतर महिला विकलांग को तो इन अवसरों तक पहुंचने ही नहीं दिया जाता। दिव्यांगों के लिए एक दिव्यांग वित्त विकास निगम जरूर बना है, पर निगम की दिक्कत यह है कि वह समाज कल्याण विभाग के अधीन है। यानी उस मंत्रालय के मातहत, जिसे वित्त विकास, उद्योग-धंधे वगै रह का कोई अनुभव ही   नहीं है। बेहतर होगा कि यह निगम वित्त मंत्रालय का हिस्सा बने और इसका प्रमुख किसी समर्पित अर्थशास्त्री को बनाया जाए। साथ ही यह भी जरूरी है कि इसकी प्रदेश और जनपद स्तर पर शाखाएं खुलें। अभी यह उम्मीद की जाती है। कि दिव्यांग खुद वित्त विकास निगम के पास आएं, जबकि होना यह चाहिए कि वित्त विकास निगम दिव्यांगों के पास जाए। दिक्कत यह भी है कि आमतौर परदिव्यांगों के लिए ये सारी योजनाएं सरकारी हैं। इनकी प्रक्रियाएं इतनी जटिल हैं कि वे फायदा तो कम लोगों को देती हैं, लेकिन निराशा ज्यादा लोगों को। दिक्कत यह भी है कि सरकारी नौकरियों और सरकारी योजनाओं का दायरा बहुत सीमित है।भूमंडलीकरण और निजीकरण के दौर में हालात काफी तेजी से बदल रहे हैं। इस बारे में तो कोई सोच ही नहीं रहा है कि इस बदलाव में दिव्यांगों के स्वावलंबी बनने का रास्ता कैसे निकाला जाए। दिव्यांगों के बारे में निजी क्षेत्र की सोच वही है, जो पूरे समाज की है। उनके पास विकलांगों के लिए सरकार जैसा भी कोई कार्यक्रम नहीं है। कॉरपोरेट जगत की सामाजिक जिम्मेदारी में भी दिव्यांगों को स्वावलंबी बनाने वाली पहल बहुत ज्यादा दिखाई नहीं पड़ी है।मौका मिलने पर बहुत से दिव्यांगों ने अपनी सामाजिक और उत्पादक भूमिका साबित की है। स्थानीय स्तर पर आपको ऐसे कई उदाहरण मिल जाएंगे लेकिन अभी ये महज अपवाद हैं। ऐसी कोशिशों को अगर हम देश की विकास यात्रा की मुख्यधारा का स्थायी हिस्सा बनाएं, तो न सिर्फ दिव्यांगों का, बल्कि पूरे समाज का ही भला होगा।

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