सर्वप्रथम न्यूज़ सौरभ कुमार : नजरिया उदारीकरण के बाद पिछले 30 सालों में पब्लिक सेक्टर की नौकरियां 10% कम हुईं रोजगार की की सही सही तस्वीर कैसे सामने आएगी?संविधान की प्रस्तावना और अनुच्छेद 21 में से सरकार की दो बड़ी जिम्मेदारियां हैं। पहला लोगों की जानमाल की रक्षा करना। दूसरा जान बनाए रखने के लिए रोजगार और उसके साधन मुहैया कराना। मेक इन इंडिया के तहत अगले 5 सालों में 60 लाख रोजगार बढ़ाने को बात बजट में हुई है। इसे अगर पूरी तौर पर सफल मान भी लिया जाए तो ‘सुरसा’ जैसी बढ़ती बेरोजगारी का समाधान कैसे होगा? फरवरी 2019 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संसद में कहा था कि 85 से 90 फीसदी रोजगार असंगठित क्षेत्र में है, जहां पर रोजगार सृजन का रोडमैप राज्यों और केंद्र के पास नहीं है। बेरोजगारी के मामले में पक्ष-विपक्ष सभी सरकारों का ट्रैक रिकार्ड गड़बड़ है। इसीलिए बेरोजगारों और भूख से मरने वालों का सही हिसाब ही नहीं रखा जाता महामारी के समय तीन करोड़ से ज्यादा लोग स्विस माइग्रेशन का शिकार होकर गांव वापस पहुंच कर सब्सिडी और नरेगा को लाइन में लग गए। कोरोना काल में 80 करोड़ से ज्यादा लोगों को राशन देने का दावा सरकार करती है, इसलिए उन्हें गरीब या बेरोजगार सकता है। इन लोगों के लिए नौकरी या स्वरोजगार का बंदोबस्त करने के बजाय पूरा जोर कल्याणकारी योजनाओं के प्रचार पर होने से लोग कुठा का शिकार हो रहे हैं। इस साल का आम बजट 39.45 लाख करोड़ का है, जिसका 24% जनकल्याणकारी योजनाओं पर खर्च होगा। आधार और बोटर कार्ड को जोड़ने की तर्ज पर राज्यों और केंद्र के बजट में सामंजस्य बने तो रोजगार और अर्थव्यवस्था की सही तस्वीर देश के सामने आएगी। रोजगार और नौकरियों के अनेक क्षेत्र हैं। लेकिन एक सर्वे के अनुसार भारत में सरकारी नौकरियों के लिए सबसे ज्यादा उतावलापन है। परंतु सरकारी नौकरियों की भर्ती का स्कोप दिन-प्रतिदिन कम होने से युवाओं में गुस्सा है। उदारीकरण के बाद पिछले 30 सालों में भारत की आबादी 84 करोड़ से बढ़कर 135 करोड़ हो गई लेकिन पब्लिक सेक्टर की नौकरियों में 10 फीसदी की कमी आ गयी। सरकार में ने 1.75 लाख करोड़ रुपए के विनिवेश का लक्ष्य रखा था, जिसमें सिर्फ 12.029 करोड़ रुपए मिले हैं। नायका जैसे नए स्टार्टअप कुछेक महीनों में हजारों करोड़ की वैल्यू हासिल कर लेते हैं, लेकिन सरकारों कंपनियों का कोई लेनहार नहीं है। 12 सरकारी बैंकों में 41 हजार से ज्यादा पद खाली है। बैंकों का निजीकरण हो रहा है और डिजिटल बैंक आ रहे हैं, तो फिर दिए गए मौलिक अधिकारों के लिहाजकंगाल हो रहे पब्लिक सेक्टर की कंपनियों के परंपरागत पदों में भर्ती क्यों और कैसे होगी ?मिनिमम गवर्नमेंट और मैक्सिमम गवनेंस के नारों के दौर में सरकारों की भूमिका और आकार दोनों कम होने से जाइनिंग लैटर के बजाय वीआरएस पर अच्छे पैकेज का रिवाज बहुत ही त्रासद है। केंद्र सरकार में 40 लाख मंजूर पदों में लगभग 8.72 लाख पद खाली हैं। इन्हें भरने के बजाय कॉन्ट्रैक्ट में भता और बड़े कंसल्टेंट के भरोसे अधिकांश सरकारी विभाग चल रहे हैं। आईएएस अफसरों की प्रतिनियुक्ति पर हो रहा विवाद खत्म हो सकता है, अगर यूटो कैडर के नाम पर ज्यादा भर्ती हो जाए तो दोर्घकाल में केंद्र सरकार में अफसरों की कमी दूर हो सकती है। हकीकत यह है कि सरकारों की आमदनी का बड़ा हिस्सा बेतन, पेंशन और प्रशासन में खर्च हो जाता है। इसलिए कागजों में पद दिखने के बावजूद नई भर्ती नहीं हो रही।सरकारी नौकरियों में भर्ती की उलझन को रेलवे से समझा जा सकता है। रेलवे में ग्रुप डी में भर्ती होने के लिए सवा करोड़ से ज्यादा लोग कतार में है। जबकि तस्वीर दूसरा पहलू यह है कि रेलवे बोर्ड ने कुछ साल पुराने पदों का रिव्यू करके उन्हें खत्म करने का निर्देश दिया था। रेलवे की सम्पति को निजी क्षेत्र को सौंपकर सरकार ने सन 2025 तक 1.5 लाख करोड़ रुपये अर्जित करने का लक्ष्य रखा है। इसके लिए 400 रेलवे स्टेशन, 90 यात्री गाड़ियां, 1400 किलोमीटर का रेलवे ट्रैक कोंकण रेलवे और 18 रेलवे स्टेडियम जैसी अनेक संपत्तियां चिह्नित की गई हैं। बजट में 400 वंदे मातरम गाड़ियां चलाने का प्रस्ताव है. जबकि 102 गाड़ियां पहले पाइपलाइन में हैं। बुलेट ट्रेन को तकनीकों के बदलते दौर में ड्राइवर और गार्ड समेत अनेक पद खत्म हो रहे हैं। राजनीतिक लाभ के लिए अगर पुराने मापदंडों पर नई भर्ती हो भी गई तो रेलवे भी एयर इंडिया की तरह सफेद हाथी बनकर करदाताओं के गले की हड्डी बन जाएगा। बेरोज़गारी की समस्या के समाधान के ठोस प्रयास के बजाय नेताओं ने राज्यों में क्षेत्रीय आधार पर आरक्षण के चल रहे हैं।साथ फ्री बंदरबाट की योजनाओं को धूम मचा रखी है। इनके लिए आंध्र में जगन सरकार ने पिछले साल जो कर्ज लिया है, वह इससे पहले की सभी सरकार की ओर से लिए गए कुल कर्जों से ज्यादा है। पंजाब में सत्ताधारी कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष नवजीत सिद्धू ने साफगोई से स्वीकार किया है कि जब सरकारी खजाना खाली हो तो फिर बायदे कैसे पूरे होंगे? यह हालत कमोबेश देश के सभी राज्यों की है। छत्तीसगढ़ में विपक्षी भाजपा ने सरकार से युवाओं को बेरोजगारी भत्ता देने की मांग की तो सत्तारूढ़ कांग्रेस के नेताओं ने जवाबी गोला दागते हुए कहा कि पहले मोदी सरकार से सालाना 2 करोड़ रोजगार और बैंक खातों में 15 लाख करने का वादा पूरा करवाया जाए। पिछले साल चुनावी प्रचार में ममता बनजी ने 10 साल के कार्यकाल में 1.2 करोड़ रोजगार सृजन का दावा किया था। लेकिन आंकड़ों के अनुसार पश्चिम बंगाल में बेरोजगारी में कोई कमी नहीं है। वहां पर सरकारी नौकरियों में स्थाई नियुक्तियों के बजाय दो लाख लोगों को संविदा पर भर्ती कर लिया गया ‘आप’ ने उत्तर प्रदेश में 10 लाख युवाओं को सालाना रोजगार देने या फिर 5000 का मासिक बेरोजगारी भत्ता देने का लॉलीपॉप दिखाया है, लेकिन उनके पास समस्या के निराकरण के लिए ठोस रोडमैप नहीं है। केंद्र में 8.72 लाख पद खाली रोजगार और नौकरियों के अनेक क्षेत्र हैं। लेकिन एक सर्वे के अनुसार देश में सरकारी नौकरियों के लिए सबसे ज्यादा उतावलापन है। परंतु सरकारी नौकरियों की भर्ती का स्कोप दिन प्रतिदिन कम होने से युवाओं में गुस्सा है। उदारीकरण के बाद पिछले 30 सालों में भारत की आबादी 84 करोड़ से बढ़कर 135 करोड़ हो गई लेकिन पब्लिक सेक्टर की नौकरियों में 10 फीसदी की कमी आ गई। केंद्र सरकार में 40 लाख मंजूर पदों में लगभग 8.72 लाख पद खाली हैं। इन्हें भरने के बजाय कॉन्ट्रैक्ट में भर्ती और बड़े कंसल्टेंट के भरोसे अधिकांश सरकारी विभाग राज्यों में बड़े-बड़े निवेश से करोड़ों रोजगार सृजन के राज्यों के दावे अगर सही साबित हो जाएं तो देश में बेरोजगारी की समस्या छूमंतर हो जाएगी। यूपी चुनावों में अखिलेश यादव आईटी सेक्टर में 22 लाख रोजगार देने का दावा कर रहे हैं। उसके जवाब में योगी सरकार में मंत्री सिद्धार्थ नाथ सिंह ने कहा कि नोएडा में 18,000 करोड़ का निवेश हुआ है और उत्तर प्रदेश में उद्योगों में निवेश से 2 करोड़ रोजगारों का सृजन किया गया है। सरकारी अफसर भी बड़बोलेपन की होड़ में पीछे नहीं हैं। पिछले महीने दूरसंचार विभाग के सचिव ने ब्रॉडबैंड इंडिया फोरम के कार्यक्रम में कहा कि देश में एक करोड़ हॉटस्पॉट बनाने से दो से तीन करोड़ रोजगार पैदा हो सकते हैं। बड़ी कंपनियों के पैकेज और सोशल मीडिया में लोकलुभावन वायदों से युवाओं की हसरतें बढ़ गई हैं। रेलवे की हिंसा से जाहिर है कि ‘डेमोग्राफिक डिविडेंड’ कहे जाने वाले युवा अब सिस्टम को अराजकता की अंधी सुरंग में धकेलने लगे हैं। रोजगार की गाड़ी को सही पटरी में तेज रफ्तार से चलाने के लिए राज्यों और केंद्र को मिलकर अपने तौर-तरीकों में बदलाव करना होगा।
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